नरेन्द्र मोदी जी की अगुआई में बीजेपी को मिले स्पष्ट बहुमत से अब देश में एक स्थिर और मज़बूत सरकार का सपना तो पूरा हो गया, जो कि समय की मांग हो गयी थी | अब अगर इस जीत का गुणा-भाग करने बैठे तो साफ़ साफ़ दिखने लगेगा कि ऐसा कैसे संभव हुआ ? तमाम “पोलिटिकल पंडितों” को झटका दे गए ये परिणाम जो गठबंधन के गणित में उलझे रह गए, और जनता की आवाज को नहीं महसूस कर पाए |
इस स्पष्ट जीत के मायने और कारण जहाँ तक मुझे समझ में आते हैं, वो मैं यहाँ रखूँगा |
1. देश में आयी “नेतृत्व शून्यता” |
अगर देखा जाए तो यूपीए-2 के शुरू से ही देश बिना किसी नेतृत्व के रेंग रहा था, अर्थव्यवस्था से लेकर महंगाई और भष्ट्राचार जैसे कई गंभीर मामलों पर देश के शीर्ष नेतृत्व का लगभग मौन रहना, न ही उसके उसमे संलिप्त होने का समर्थन करता दिखता था, अपितु देश के लिए ये आत्म-सम्मान का विषय भी था | अगर हम भष्ट्राचार के मामलों को छोड़ भी दें, तब भी चाहें वो राष्ट्रीय सुरक्षा की बात हो या भारत की कूटनीतिक स्थिति या फिर विदेश नीति, इन सभी मामलों में नेतृत्व नाम की कोई बात नज़र नही आयी |
अगर प्रधानमंत्री को छोड़ भी दिया जाए, फिर भी अन्य भी कोई मंत्री अपनी भूमिका को निभाता हुआ नहीं दिखा|
देश लगातार बदल रहा था, वो अपने देश का आत्म-सम्मान को वापस लाना चाहता था, और इस बार उसने इसे ही चुना, जिसने दृढ और सशक्त नेतृत्व की बात की |
2. देश बदल रहा था |
मोदी की जीत में सबसे बड़ा कारक जो था वो था कि मोदी जी ने उस “बदलाव" को महसूस कर लिया ..जिसकी सुबुगाहट अन्ना और रामदेव आन्दोलन के दौरान पता चली थी | वो बदलाव जो बता रहा था कि समाज अब “याची” ना रहकर “आकांक्षी" हो चला है, उसे अब खैरात नहीं चाहिए, उसे अब आत्म-सम्मान चाहिए, उसे बेरोज़गारी भत्ता नहीं चाहिए, उसे अब योग्यतानुसार रोजगार चाहिए, वो अब खुद अपने बूते पर काम चाहिए था, उसे अपना “अधिकार” चाहिए था …कोई “उपकार” नहीं |
बस देश ने इस बार इसे ही चुना, करोड़ों युवा मतदातायों के लिए प्रथम प्राथमिकता थी ..रोजगार बस उसने इसी को चुना |
कांग्रेस के कई नेता , राहुल गाँधी के साथ जो अपने आप को युवा मानते थे वो भी 2004-2005 की दो चार योजनायों को घुमा घुमा कर अपनी सबसे बड़ी उपलब्धियों की तरह पेश करते रहे, और वो ये नहीं समझ पाए …इस रेंगती अर्थव्यवस्था और महगांई और भीषण बेरोज़गारी में मनरेगा मात्र “ऊंट में मुंह में जीरा” ही समान होता जा रहा था |
3. अवसरवाद, जाति, क्षेत्रवाद राजनीति से परेशान आ गया था देश |
1984 के बाद से किसी भी पार्टी को बहुमत ना मिल पाने के पीछे जो मुख्य कारण मैं समझता हूँ वो था भारतीय समाज के जटिल ताने बाने की कमजोर कड़ियों का फायदा उठाकर पनपीं कई अवसर और जातिवादी क्षेत्रीय पार्टियां , जिनके चलते गठबंधन सरकारें कई सारी जिम्मेदारियों को “गठबंधन धर्म” की अनिवार्यता या मजबूरी का नाम लेकर बच जाती थी | साथ ही ये पार्टियाँ भी अपने स्वार्थ सिद्ध करने में कामयाब हो जाती थी | जनता अब इससे ऊपर उठना चाहती थी ….मोदी ने इसका आवाहन अपने “मिशन 272” के जरिये किया …जिसको जनता ने 282 करके दिया |
जनता की इस आकांक्षा को बीजेपी के अलावा कोई और पार्टी बिलकुल नहीं समझ पायी |
4. मोदी का नया और दमदार चुनाव प्रचार |
इसके कई आलोचक होंगे, पर मुझे इसमें कुछ गलत नही लगता ..अगर आप वर्तमान को नही देख सकते तो भविष्य क्या देख लोगे ? मोदी ने शुरू से ही जिस शैली का इस्तेमाल किया वो भारतीय सन्दर्भ में नयी थी …ये अमेरिका की “प्रेसिडेंट स्टाइल” वाले चुनाव प्रचार से काफी मिलती थी …जिसमे उम्मीदवार पहले से ही जनता के सामने साफ़ होता है, वो किसे चुनने जा रही है, “संसदीय व्यवस्था” की कमजोरी के चलते “ एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री” को जनता पिछले १० साल से झेल रही थी |
दूसरा एक बड़े समुदाय के समक्ष अपने आपको एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना, और उस बड़ी संख्या को अपनी तरफ मोड़ने के लिए सोशल मीडिया, 3D तकनीक, चाय चर्चा के जरिये सीधा संवाद, अपने विरोधियों को लगातार अपने ही मज़बूत बात (विकास मॉडल) के इर्द गिर्द घुमाने पर मजबूर करने में सफल होना ये सब सोची समझी , पूर्ण सुनियोजित योजना के तहत चुनाव प्रचार वाकई कुशल नेतृत्व का ही परिचय देता था |
यहाँ सभी कारण तो नहीं समेट पाया हूँगा, पर अपने हिसाब से कोशिस की है ..बाकी आपकी भी राय होगी और आप जरूर व्यक्त करें |