पिछले सप्ताह 'मन की बात' में प्रधानमंत्री जी ने हरियाणा के एक गाँव के सरपंच के #Selfiewithdaughter की सराहना की, साथ ही उन्होंने देशवासियों से भी आग्रह किया कि वे भी इस तरह की मुहिम में हिस्सा लें ।
देखते ही देखते, ट्विटर पर #SelfieWithDaughter एक ट्रेंड चल पड़ा, जो सिर्फ देश में ही नही विश्व स्तर पर भी ट्रेंड करने लगा ।
जाहिर सी बार है, किसी भी मुद्दे पर लोगों की राय अलग अलग हो सकती है, सो वैसा ही हुआ, जिसमे अभिनेत्री श्रुति सेठ की ट्वीट जो पूरे इस ट्विटर कैम्पेन से सहमत नही थी, उन्होंने अपनी असहमति प्रधानमंत्री के साथ दर्ज करायी, उसमे कोई बुरी बात नही थी ।
पर कुछ लोगों का इस पर रिएक्शन काफी निराशाजनक, अशोभनीय और बुरे स्तर का था । ये पूरे कैम्पेन का मूल ही ख़त्म कर देता है।
दूसरा ट्वीट जिसकी काफी आलोचना हुई वो थी कविता कृष्णन की ट्वीट, ये उस चलन को दिखाता है जो आजकल देखा जा रहा है कि कुछ स्वम्भू बुद्धिजीवी 'एंटी-मोदी' लिखने को बड़ा ही 'कूल' और 'इन्टलेक्चूअल' समझते है ।
यहाँ मैं उस पर ज्यादा बात नही करना चाहता हूँ।
पहली बात, इस बात मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि ट्विटर पर कैम्पेन चलाना, इस तरह की समस्या का कोई हल नही है ।
पर इससे नुकसान भी तो कुछ नही है?
यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि ट्विटर पर जो लोग ट्रेंड चलाते या बनाते है वो ज्यादातर शहरी यूजर होते है जहाँ समस्या इतनी गंभीर नही है।
जहाँ समस्या ज्यादा गंभीर है वो ट्वीटर चलाते नही है ।
तो फिर इसका क्या कोई फायदा है?
है,
क्योंकि, ये समस्या सदियों से है और भारतियों के रग रग में बसी सी लगती है, इस मामले में सरकारें योजनाएं बना सकती है और उन्हें लागू करा सकतीं है ।
और जहाँ सोच बदलने की बात आती है तो उसके लिए पहले की सरकारें भी प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सहारा लेती आयीं हैं ।
अगर इस बार, प्रधानमंत्री मार्केटिंग और प्रचार के लिए 'सोशल मीडिया' का सहारा लेते है तो इसमें बुरा क्या है?
अगर इस पूरे कैम्पेन को सकारात्मकता से देखा जाए तो कुछ बुरा नही है?
हाँ, अगर इस पूरे घटनाक्रम को "रेडिकल फेमिनिज़म" के चश्मे से देखेंगे, तो फिर अभी बात काफी लंबी चलेगी ।